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वो जनसत्ता के दिन, ये आई-नेक्स्ट के दिन

बाजार की सबसे बड़ी ताकत भी हिन्दी के अखबार
 मनोज कुमार: साभार :  भड़ास4मीडिया
हिंदी भाषा और हिंदी अखबार : कोई कहे कि हिन्दी अखबार हिन्दी से दूर हो रहे हैं तो आप चौंकेंगे। मैं भी चौंका था जब एक दर्जन समाचार पत्रों का छह महीने तक अध्ययन करता रहा। हिन्दी अखबारों द्वारा हिन्दी का मटियामेट इन छह महीनों में नहीं हुआ बल्कि इसकी शुरुआत तो डेढ़ दशक पहले शुरू हो गयी थी।
जिस तरह एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिये हिन्दी पाठशाला में पढ़ने वाला बच्चा हर तरह से कमजोर होता है और पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा चाहे कितना ही कमजोर क्यों न हो, वह कुशाग्र बुद्धि का ही कहलायेगा, ऐसी मान्यता है, सच्चाई नहीं, लगभग यही स्थिति हिन्दी के अखबारों में है।

यह सच है कि हिन्दी के अखबारों का अपना प्रभाव है। उनकी अपनी ताकत है और हिन्दी के अखबार ही समाज के मार्गदर्शक भी रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम की बात करें अथवा नये भारत के गढ़ने की, हिन्दी के अखबारों की भूमिका ही महत्वपूर्ण रही है। भारत गांवों का देश कहलाता है और हिन्दी के अखबार इनकी आवाज बने हुए हैं। 

बदलते समय में भी हिन्दी के अखबार प्रभावशाली बने हुए है। बाजार की सबसे बड़ी ताकत भी हिन्दी के अखबार हैं और बाजार की सबसे बड़ी कमजोरी भी हिन्दी के अखबार हैं। इन सबके बावजूद हिन्दी के अखबार कहीं न कहीं अपने आपको कमजोर महसूस करते हैं और अंग्रेजी से नकलीपन करने से बाज नहीं आते हैं।

ये नकलीपन कैसा है और इसके पीछे क्या तर्क दिये जा रहे हैं, इस मानसिकता को समझना होगा। इस बात को समझने के लिये हमें अस्सी के दौर में जाना होगा। यह वह दौर था जब हिन्दी का अर्थ हिन्दी ही हुआ करता था। खबरों में अंग्रेजी के शब्दों के उपयोग की मनाही थी। पढ़ने वाले भी सुधि पाठक हुआ करते थे। समय बदला और चीजें बदलने लगीं। सबसे पहले कचहरी अथवा अदालत के स्थान पर कोर्ट का उपयोग किया जाने लगा। इसके बाद जिलाध्यक्ष एवं जिलाधीश के स्थान पर कलेक्टर और आयुक्त के स्थान पर कमिश्नर लिखा जाने लगा।

हिन्दी के पाठक इस बात को पचा नहीं पाये और विरोध होने लगा तब बताया गया कि समय बदलने के साथ साथ अब हिन्दी अंग्रेजी का मिलाप होने लगा है और वही शब्द अंग्रेजी के उपयोग में आएंगे जो बोलचाल के होंगे। तर्क यह था एक रिक्शावाला कोर्ट तो समझ जाता है किन्तु कचहरी अथवा अदालत उसके समझ से परे है। 

जिलाध्यक्ष शब्द को लेकर यह तर्क दिया गया कि विभिन्न राजनीतिक दलों के जिलों के अध्यक्षों को जिलाध्यक्ष कहा जाता है और जिलाधीश अथवा जिलाध्यक्ष मे भ्रम होता है इसलिये कलेक्टर लिखा जाएगा ताकि यह बात साफ रहे कि कलेक्टर अर्थात जिलाध्यक्ष है जो एक शासकीय अधिकारी है न कि किसी पार्टी का जिलाध्यक्ष। आयुक्त को कमिश्नर लिखे जाने पर कोई पक्का तर्क नहीं मिल पाया तो कहा गया कि रेल शब्द का हिन्दी लौहपथ गामिनी है और सिगरेट को श्वेत धूम्रपान दंडिका कहा जाता है जो कि आम बोलचाल में लिखना संभव नहीं है।

इसी के साथ शुरू हुआ हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल। इसके बाद हिन्दी अखबारों को लगने लगा कि हिन्दी पत्रकारिता में खोजी पुट नहीं है और अनुवाद की परम्परा चल पड़ी। बड़े अंग्रेजी अखबारों से हिन्दी में खबरें अनुवाद कर प्रकाशित की जाने लगी। इसके पीछे बड़ी, गंभीर, खोजी और न जाने ऐसे कितने तर्क देकर एक बार फिर अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं का गुणगान किया जाने लगा। 

90 के आते आते तो लगभग हर अखबार यह करने लगा था। खासतौर पर क्षेत्रीय हिन्दी अखबार। मुझे लगता है कि इसके पीछे यह भावना भी काम कर रही थी कि देखिये हमारे पास श्रेष्ठ अनुवादक हैं जो अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद कर आप तक पहुंचा रहे हैं। 

हालांकि यह दौर अनुवाद का दौर था किन्तु इसकी विशेषता यह थी कि इसमें अंग्रेजी का शब्दानुवाद नहीं किया जाता था बल्कि भावानुवाद किया जाता था। इससे अंग्रेजी में लिखी गयी खबर की आत्मा भी नहीं मरती थी और हिन्दीभाषी पाठकों को खबर का स्वाद भी मिल जाता था। ऐसा भी नहीं है कि इसका फायदा हिन्दी के पाठकों को नहीं हुआ। 

फायदा हुआ किन्तु श्रेष्ठिवर्ग साबित हुआ अंग्रेजी जानने वाले और अंग्रेजी के अखबार विद्वान। अनचाहे में हिन्दी अखबार स्वयं को दूसरे दर्जे का मानने लगे और हिन्दी में काम करने वाले पत्रकार स्वयं में हीनभावना के शिकार होने लगे। प्रबंधन भी उन पत्रकारों को विशेष तवज्जो देने लगा जो अंग्रेजी के प्रति मोह रखते थे और एक तरह से स्वयं को अंग्रेजीपरस्त बताने में माहिर थे।

हिन्दी और अंग्रेजी की यह कशमकश चल ही रही थी कि हिन्दी को लेकर आंदोलन होने लगा। अंग्रेजी हटाओ के समर्थकों की इस मायने में मैं पराजय देखता हूं कि वे अंग्रेजी तो हटा नहीं पाये किन्तु हिन्दी को भी नहीं बचा पाये। पत्रकारिता का यह बदलाव का युग था। सन् 77 के आपातकाल के बाद एकाएक नवीन समाचार पत्रों के प्रकाशन संख्या में वृद्वि होने लगी जिसमें हिन्दी की संख्या अधिक थी। 

यह स्वाभाविक भी था क्योंकि देश भर में हिन्दीभाषियों की संख्या अधिक थी, खासकर अविभाजित मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में। मध्यप्रदेश में तब अंग्रेजी जानने वाले राजधानी भोपाल के भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स में काम करने आये अहिन्दी भाषी लोग या वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के भिलाई इस्पात संयंत्र अथवा एसीसीएल, बाल्को आदि में काम करने वाले अहिन्दी भाषी लोगों को ही अंग्रेजी अखबार की दरकार थी। 

इनके लिये राजधानी दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी के अखबार जो उस समय दूसरे दिन पहुंचते थे, पर्याप्त था। हिन्दी अखबारों के प्रकाशनों की बढ़ती संख्या और अनुवाद की कमी से जूझते अखबारों के संकट को समाचार एजेंसियों ने परख लिया। संभवतः सबसे पहले यूनाइटेड न्यूज एजेंसी ने वार्ता के नाम से हिन्दी समाचार देना शुरू किया। इसके बाद प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया ने भाषा नाम से हिन्दी में समाचार देना आरंभ किया।

वार्ता और भाषा के आगमन के साथ हिन्दी अखबारों में अनुवादकों को नजरअंदाज किया जाने लगा। कई अखबारों ने तत्काल अनुवादकों के पद को समाप्त कर दिया। हिन्दी के अखबारों में हिन्दी की उपेक्षा का परिणाम यह रहा कि एक समय पू्रफरीडिंग के लिये हिन्दी में एमए पास लोगों को रखा जाता था। 

हिन्दी अखबारों को यह पद भी भारी पड़ने लगा और उपसम्पादकों और रिपोर्टरों को कह दिया गया कि अपनी खबरों का पू्रफ वे ही पढ़ेंगे। थोड़ा बहुत विरोध होने के बाद पू्रफरीडर का पद समाप्त कर दिया गया। मेरा खयाल है कि आज के समय में हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के अलावा थोड़े से अखबारों में ही यह पद सुरक्षित है। 

अगर मेरी स्मरणशक्ति काम कर रही है तो प्रूफरीडर को बछावत वेतन आयोग ने श्रमजीवी पत्रकार के समकक्ष माना था। खैर, इसके बाद आज समाचार पत्रों में जो गलतियां छप रही हैं, वे हमें शर्मसार करती हैं, गर्व का भाव कहीं नहीं है। लिखते समय वाक्य के गठन में गलती हो जाना या कई बार एक जैसे नाम में भूल की आशंका बनी रहती थी जिसे पू्रफरीडर सुधार लिया करते थे किन्तु अब हमारी गलती कौन बताये। इतना जरूर है कि अगले दिन आपकी गलती के लिये संपादक दंड देने के लिये जरूर हाजिर रहेगा।

90 में टेलीविजन संस्कृति ने तो हिन्दी समाचार पत्रों को प्रिंटमीडिया का टेलीविजन बना दिया। अब खबरों की प्रस्तुति उसी रूप में होने लगी और भाषा भी लगभग टेलीविजन की हो गई। खबर और विचार की भाषा के बीच के अंतर को भी नहीं रखा गया। वाक्य विन्यास का बिगड़ा रूप् अपने आपमें हिन्दी पाठको को डरा देने वाला है। एक बार फिर दोहराना चाहूंगा कि जिन अखबारों से बच्चे हिज्जा कर हिन्दी पढ़ना और लिखना सीखते थे, आज वह अखबार गुम हो गया है। सिटी, मेट्रो, नेशनल, इंटरनेशल जैसे शब्द धड़ल्ले से हिन्दी अखबारों में उपयोग हो रहे हैं।

अखबार के एकाधिक पृष्ठों के नाम अंग्रेजी में होते हैं। कहा जाने लगा कि यह हिंग्लिश का दौर है। हिंग्लिस से एक कदम और आगे जाकर एक अखबार आईनेक्स्ट के नाम पर आरंभ हुआ। इसे न तो आप हिन्दी कह सकते हैं और न इसे अंग्रेजी, हिंग्लिश का भी कोई चेहरा नजर नहीं आया। इस बहुमुखी प्रतिभा वाले समाचार पत्र से मेरा परिचय महात्मा गांधी अन्र्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने कराया।

पत्रकारिता के छात्रों के बीच जब मैं व्याख्यान देने पहुंचा और पत्रकारिता की भाषा पर चर्चा हुई तो विद्यार्थियों ने इस अनोखे अखबार के बारे में न केवल बताया बल्कि एक प्रति भेंट भी की। वे पत्रकारिता की इस भाषा से दुखी थे। एक तरफ हिन्दी के अखबार स्वयं को हिन्दी से दूर कर रहे थे और दूसरी तरफ अंग्रेजी के अखबार और पत्रिकायें हिन्दी पाठकों के बीच एक बड़ा बाजार देख रही थी।

इन प्रकाशनों ने न केवल हिन्दीभाषी पाठकों में बाजार ढूंढ़ा बल्कि भाषाई पाठकों में वे बाजार की तलाश करने निकल पड़े। अंग्रेजी का इंडिया टुडे हिन्दी में प्रयोग करने वाला पहला अखबार था। आरंभिक दिनों में हिन्दी इंडिया टुडे की सामग्री अंग्रेजी से अनुवादित होती थी किन्तु आहिस्ता आहिस्ता हिन्दी का स्वतंत्र स्वरूप् ग्रहण कर लिया। 

मेरे लिये ही नहीं हिन्दी पत्रकारों के लिये यह गौरव की बात है कि हमारे अग्रज और रायपुर जैसे कभी एक छोटे से शहर (आज भले ही रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी हो) से निकले श्री जगदीश उपासने हिन्दी इंडिया टुडे के संपादकीय कक्ष के सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठे हैं। अंग्रेजी के प्रकाशनों का हिन्दी में आरंभ होना और हिन्दी के एक पत्रकार का शीर्ष पर बैठना इस बात का संकेत है कि हिन्दी ताकतवर थी और रहेगी।

हिन्दी पत्रकारिता के लिये यह सौभाग्य था कि उसे राजेन्द्र माथुर जैसे पत्रकार एवं ओजस्वी सम्पादक मिला। राजेन्द्र माथुर मूलतः अंग्रेजी के जानकार थे और वे चाहते तो उस दौर में भी बड़ी मोटी तनख्वाह पर किसी अंग्रेजी अखबार के शीर्षस्थ पर पर काबिज हो सकते थे किन्तु उन्होंने इसके उलट किया। वे हिन्दी पत्रकारिता में आये और हिन्दी में सम्पादक के होने को नया अर्थ दिया। हिन्दी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर का नाम गर्व से लिया जाता रहेगा। 

हिन्दी पत्रकारिता को हताशा और कुंठा के दौर से बाहर आने की जरूरत है और अपने भीतर की ताकत को पहचानने की भी। हिन्दी पत्रकारिता में अनेक नामचीन पत्रकार और सम्पादक हुए जिनकी पृष्ठभूमि ग्रामीण और मध्यमवर्गीय परिवार की रही है किन्तु मेरी जानकारी में अंग्रेजी के अपवाद स्वरूप् कुछ नाम छोड़ दें तो बाकि बचे पत्रकार और सम्पादक सम्पन्न, शहरी परिवेश में पले-बढ़े और पब्लिक स्कूलांे में शिक्षित परिवारों से आये।

हिन्दी पत्रकारिता और समाचार पत्रों को इस बात की मीमांसा करना चाहिए कि जब एक अंग्रेजी का अखबार हिन्दी में छपने के लिये मजबूर हो सकता है तो हम हिन्दी में ही अपना एकछत्र राज्य क्यों नहीं बना पाये? क्यों हम अंग्रेजी पत्रकारिता का अनुगामी बने हुए हैं? क्यों हमें अंग्रेजी पत्रकारिता श्रेष्ठ लगती है? इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हिन्दी का एक बड़ा पाठक वर्ग आज भी अंग्रेजीमिश्रित हिन्दी के खिलाफ हैं।

कार्पोरेटस्वरूप लेकर तेजी से फैलते भास्कर पत्र समूह एवं कुछ हिन्दी के कुछ अन्य समाचार पत्र सम्मानजनक मानदेय देने लगे हैं। पेजथ्री पढ़ाने वाले हिन्दी के अखबारों में स्थानीय लेखकों को स्थान नहीं मिल पाता है और न ही उन्हें सम्मानपूर्वक मानदेय दिया जाता है। पाठक वर्ग भी इन दिनों अखबारों को गंभीरता से नहीं ले रहा है। वह भी अखबारों के उपहार योजनाओं में उलझ कर रह गया है।

एक समय था जब गलत खबर छपने पर पाठकों की दनादन चिट्ठियां समाचार पत्रों के कार्यालयों में आ जाती थी। संपादक को गलती के लिये माफी मांगने के लिये मजबूर होना पड़ता था किन्तु इन गलतियों पर पाठक अब ध्यान खींचने के बजाय, उसे सुधरवाने के बजाय, मजा लेते हैं। पाठकों की यह निराशा इस बात को साबित करती है कि उसने अखबारों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है।

80 के दशक में जब मैंने देशबन्धु से अपनी पत्रकारिता का श्रीगणेश किया तो हमें प्रशिक्षण के दौरान यह बात बतायी गयी थी कि हमारे अखबार का पाठक वर्ग कौन सा है और उनमें साक्षरता का प्रतिशत क्या है। यह इसलिये कि हम खबरों की, विचारों की, संयोजन करने की कला उनकी समझ के अनुरूप् कर सकें। गंभीर गहन साहित्यिक शब्दों का जाल उन्हें अखबार से दूर कर देगा। इसका यह अर्थ भी कदापि नहीं था कि आप स्तरहीन शब्दों का उपयोग करें बल्कि समझाइश यह थी कि गृह के बजाय घर लिखें और कृषक के बजाय किसान। 
जनसत्ता को पढ़ते हुए मैं इस बात से गर्व से भर जाता हूं कि आज भी यह अखबार हिन्दी पाठक का अखबार है। उसकी भाषा, उसकी प्रस्तुति एक आम हिन्दुस्तानी पाठक की है जो गंगा जमुनी संस्कृति में पला बढ़ा है। जिसे हिन्दी के साथ उर्दू का भी ज्ञान है और देशज बोली की सुगंध इस अखबार में छपे हर शब्द से आपको हमको मिल जाएगी। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं उस दिन की जब हिन्दी के अखबार पेजथ्री से उबरकर वापस चौपाल का अखबार बन सकेंगे।

लेखक मनोज कुमार स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं. वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर में सहायक संपादक 1996 तक. इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य. वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक. 
यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन. माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान. 
पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण. माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद में पुस्तकाकार में प्रकाशन. फिलवक्त मीडिया की मासिक पत्रिका 'समागम' के प्रकाशक एवं संपादक

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