पढ़ें और पढ़ायें अखबार’, दो रुपये में प्रभात खबर.
साभार इ भड़ास4मीडिया
प्रभात खबर आजकल के ब्रांड गुरुओं और संपादकों के लिए नजीर है. कोई काम कैसे सुव्यवस्थित, तार्किक व जनपक्षधर तरीके से किया जाता है, वह सीखना-समझना हो तो प्रभात खबर को देखना चाहिए. याद रखिए, सब कुछ करने के बावजूद अगर आपके काम, अंदाज और नतीजे में जनपक्षधरता नहीं है
तो फिर आपका काम मीडिया से जुड़े काम की कैटगरी में नहीं रखा जा सकता. वो कुछ और हो सकता है. मीडिया माने जनता की आवाज. सच बोलने की ताकत और साहस. अगर आप सच बोलते-लिखते हैं. अगर आप जनपक्षधर रहते हैं.अगर आप वैज्ञानिक और सजग दृष्टिकोण से लैस होकर जनता-जनार्दन को शिक्षित-प्रशिक्षित करते हैं. तो यकीन मानिए, आपके पास बिजनेस भी खुद चलकर आएगा. ब्रांड भी खुद डेवलप होगा. अच्छे कंटेंट से बिजनेस और ब्रांड खुद ब खुद खड़ा हो जाता है, यह मीडिया के समझदार लोग जानते-समझते हैं.
लेकिन मीडिया में घुस आए ढेर सारे नकली संपादक और ब्रांड गुरु कंटेंट को थर्ड कैटगरी में रखकर ब्रांड डेवलप करने और बिजनेस पैदा करने में लग जाते हैं और उनका यह काम अंततः पहले उनके ब्रांड और फिर खुद उनका पतन करा देता है.
अगर आप जनता से प्यार करते हैं (ज्यादातर मीडिया वाले जनता को मूर्ख समझकर सिर्फ और सिर्फ अपने लिए सोचते रहते हैं), अगर आप अपने ईमानदार बोल और ईमानदार काम से जनता के दिलों में प्यार से राज करते हैं (ध्यान रखिए, प्यार से, फर्जीवाड़े या जोर-जबरदस्ती से नहीं) तो जनता पर टिकी रहने वाली कंपनियां, संस्थाएं, अधिकारी, नेता... सब आपको सलाम करेंगे, आपसे जुड़ना चाहेंगे, आपकी मदद करना चाहेंगे. आशय ये कि आपके पास बिजनेस और ब्रांड का टोटा नहीं रहेगा बल्कि आपकी ही जय जय होगी.
पर जनता के लिए काम करने वालों के लिए किसी के सलाम के कोई मायने नहीं होते. जो जनपक्षधर होता है, वह जनता में ही जीता-मरता है और उसी में सुख पाता है. हरिवंश के कारण प्रभात खबर कंटेंट के मामले में और जनपक्षधरता के मामले में बेमिसाल बना हुआ है. अखबार का दाम चार रुपये से दो रुपये करने के पीछे उद्देश्य क्या है, यह बताने के अगले दिन पाठकों को कुछ इस तरह से अखबार पढ़ने और पढ़ाने के बारे में समझाया-बताया-एजुकेट किया गया... -एडिटर
पढ़ें और पढ़ायें अखबार!
बांग्ला के महान पत्रकार गौरकिशोर घोष की कही बात याद आती है. गौर दा उस पीढ़ी -वय के पत्रकार थे, जो पत्रकारिता को सच का पर्याय मानते थे. जिनके कहने और करने में फ़ासला नहीं था. जिनके पास समाज और मुल्क के लिए सपने थे. वे अपने और अपने परिवार के लिए नहीं जीते थे.
एक बार हमने उनसे पूछा. 80 के दशक में. कैसे बांग्ला अखबार लाखों में बिकते हैं? एक ही संस्करण कई लाख छपते हैं. अन्य भाषाओं में नहीं. उनका उत्तर था, इसके लिए बड़ी कोशिश हुई है. उन्होंने अपना एक प्रसंग सुनाया. कैसे वह धूप, बरसात या जाड़े में किसानों के बीच जाते थे कि पढ़ना क्यों जरूरी है? सूचनाएं रखना कैसे उपयोगी है? याद रखिए यह उस दौर की बात है, जब दुनिया ग्लोबल विलेज में नहीं बदली थी. सूचना क्रांति नहीं हुई थी.
ज्ञान युग (नॉलेज ऐरा) की चर्चा नहीं थी. आज तो माना ही जाता है कि सूचना एक ताकत है (इनफ़ारमेशन इज ए पावर). जिसके पास सूचनाएं हैं, उसके पास आगे बढ़ने की सीढ़ी है. उसके लिए दुनिया में अवसर के दरवाजे खुलते हैं. जो सूचना से लैस है, वह अपनी तकदीर अपने ढंग से लिख रहा है. यह सूचना मिलती कैसे है? अखबारों से, पत्र-पत्रिकाओं से. 80 के दशक में गौरकिशोर घोष जैसे लोगों ने अपने समाज को सूचना संपन्न बनाने का अभियान चलाया.
अगर आप जनता से प्यार करते हैं (ज्यादातर मीडिया वाले जनता को मूर्ख समझकर सिर्फ और सिर्फ अपने लिए सोचते रहते हैं), अगर आप अपने ईमानदार बोल और ईमानदार काम से जनता के दिलों में प्यार से राज करते हैं (ध्यान रखिए, प्यार से, फर्जीवाड़े या जोर-जबरदस्ती से नहीं) तो जनता पर टिकी रहने वाली कंपनियां, संस्थाएं, अधिकारी, नेता... सब आपको सलाम करेंगे, आपसे जुड़ना चाहेंगे, आपकी मदद करना चाहेंगे. आशय ये कि आपके पास बिजनेस और ब्रांड का टोटा नहीं रहेगा बल्कि आपकी ही जय जय होगी.
पर जनता के लिए काम करने वालों के लिए किसी के सलाम के कोई मायने नहीं होते. जो जनपक्षधर होता है, वह जनता में ही जीता-मरता है और उसी में सुख पाता है. हरिवंश के कारण प्रभात खबर कंटेंट के मामले में और जनपक्षधरता के मामले में बेमिसाल बना हुआ है. अखबार का दाम चार रुपये से दो रुपये करने के पीछे उद्देश्य क्या है, यह बताने के अगले दिन पाठकों को कुछ इस तरह से अखबार पढ़ने और पढ़ाने के बारे में समझाया-बताया-एजुकेट किया गया... -एडिटर
पढ़ें और पढ़ायें अखबार!
बांग्ला के महान पत्रकार गौरकिशोर घोष की कही बात याद आती है. गौर दा उस पीढ़ी -वय के पत्रकार थे, जो पत्रकारिता को सच का पर्याय मानते थे. जिनके कहने और करने में फ़ासला नहीं था. जिनके पास समाज और मुल्क के लिए सपने थे. वे अपने और अपने परिवार के लिए नहीं जीते थे.
एक बार हमने उनसे पूछा. 80 के दशक में. कैसे बांग्ला अखबार लाखों में बिकते हैं? एक ही संस्करण कई लाख छपते हैं. अन्य भाषाओं में नहीं. उनका उत्तर था, इसके लिए बड़ी कोशिश हुई है. उन्होंने अपना एक प्रसंग सुनाया. कैसे वह धूप, बरसात या जाड़े में किसानों के बीच जाते थे कि पढ़ना क्यों जरूरी है? सूचनाएं रखना कैसे उपयोगी है? याद रखिए यह उस दौर की बात है, जब दुनिया ग्लोबल विलेज में नहीं बदली थी. सूचना क्रांति नहीं हुई थी.
ज्ञान युग (नॉलेज ऐरा) की चर्चा नहीं थी. आज तो माना ही जाता है कि सूचना एक ताकत है (इनफ़ारमेशन इज ए पावर). जिसके पास सूचनाएं हैं, उसके पास आगे बढ़ने की सीढ़ी है. उसके लिए दुनिया में अवसर के दरवाजे खुलते हैं. जो सूचना से लैस है, वह अपनी तकदीर अपने ढंग से लिख रहा है. यह सूचना मिलती कैसे है? अखबारों से, पत्र-पत्रिकाओं से. 80 के दशक में गौरकिशोर घोष जैसे लोगों ने अपने समाज को सूचना संपन्न बनाने का अभियान चलाया.
आंदोलन के तौर पर. जागरूक करने के लिए. इस अभियान का असर पड़ा. वह समाज-राज्य (बंगाल) आगे बढ़ा. इसी तरह हिंदी राज्यों को अगर आगे बढ़ना है, तो अपने दुर्भाग्य के अभिशाप से मुक्त होना होगा. कर्म और श्रम के रास्ते. विकास के नये प्रतिमान गढ़ने होंगे. नयी और नैतिक राजनीति करनी होगी.
शिक्षा, रोजगार और संपन्नता में आगे बढ़े राज्यों को अगर पीछे छोड़ना है, तो हिंदी भाषी राज्यों को सूचना संपन्न बनना होगा. इस मुल्क में साक्षरता का आंदोलन चला. पर एक सीमा बाद वह कामयाब नहीं हुआ. पर आप ‘पढ़ें और पढ़ायें अखबार’ आंदोलन में न सिर्फ़ शरीक हों, बल्कि इसके साझीदार बनें. चाहे राजनीतिक दल के कार्यकर्ता हों या स्वयंसेवी संगठनों के लोग, या स्वैच्छिक संगठन, सामाजिक संस्थाएं. वे स्वत: आगे बढ़ कर ‘पढ़ें और पढ़ायें अखबार’ आंदोलन में भागीदार बनें.
क्यों?
इसलिए कि अखबारों से मिली सूचनाएं और जानकारी ही समाज की तकदीर बदल सकती हैं. लोगों को जागरूक बना सकती हैं. समाज को बेहतर कर सकती हैं. जिस पायदान पर हम खड़े हैं, वहां से आगे ले जा सकती हैं. समाज को सचेष्ट बनाने का यही एकमात्र रास्ता है. जागरूक समाज ही विकसित समाज बनते हैं. बेहतर समाज होते हैं. इस जागरूकता अभियान की कड़ी में ही प्रभात खबर ने अपनी कीमत दो रुपये की है, ताकि यह सर्वसुलभ हो सके.
इतिहास बनानेवाली कौमों ने समाज सुधार अभियान चलाये. फ़िर जागरूकता आयी. आज गांवों के क्या दृश्य हैं? नशा, ताड़ी, शराब, गांजा, भांग ओद पर हजारों रुपये लोग बहाते हैं. शहरों में अलग तरह की भीषण फ़िजूल-खर्ची है.
शिक्षा, रोजगार और संपन्नता में आगे बढ़े राज्यों को अगर पीछे छोड़ना है, तो हिंदी भाषी राज्यों को सूचना संपन्न बनना होगा. इस मुल्क में साक्षरता का आंदोलन चला. पर एक सीमा बाद वह कामयाब नहीं हुआ. पर आप ‘पढ़ें और पढ़ायें अखबार’ आंदोलन में न सिर्फ़ शरीक हों, बल्कि इसके साझीदार बनें. चाहे राजनीतिक दल के कार्यकर्ता हों या स्वयंसेवी संगठनों के लोग, या स्वैच्छिक संगठन, सामाजिक संस्थाएं. वे स्वत: आगे बढ़ कर ‘पढ़ें और पढ़ायें अखबार’ आंदोलन में भागीदार बनें.
क्यों?
इसलिए कि अखबारों से मिली सूचनाएं और जानकारी ही समाज की तकदीर बदल सकती हैं. लोगों को जागरूक बना सकती हैं. समाज को बेहतर कर सकती हैं. जिस पायदान पर हम खड़े हैं, वहां से आगे ले जा सकती हैं. समाज को सचेष्ट बनाने का यही एकमात्र रास्ता है. जागरूक समाज ही विकसित समाज बनते हैं. बेहतर समाज होते हैं. इस जागरूकता अभियान की कड़ी में ही प्रभात खबर ने अपनी कीमत दो रुपये की है, ताकि यह सर्वसुलभ हो सके.
इतिहास बनानेवाली कौमों ने समाज सुधार अभियान चलाये. फ़िर जागरूकता आयी. आज गांवों के क्या दृश्य हैं? नशा, ताड़ी, शराब, गांजा, भांग ओद पर हजारों रुपये लोग बहाते हैं. शहरों में अलग तरह की भीषण फ़िजूल-खर्ची है.
क्या झारखंड के समाज में कोई आंदोलन चलेगा कि ऐसी चीजों पर हो रहे खर्च की हम कटौती करें. पुस्तकें, अखबार तोहफ़े के रूप में लोगों को दें. नहीं पढ़ते हैं, तो पढ़ने का आंदोलन शुरू करें. ऐसा प्रयास, जो नया विजन दे. नयी ऊर्जा दे. नये सपने दे. देश-दुनिया से जोड़े. खुद और समाज को बेहतर करने की भूख पैदा करे.
इसी प्रयास में प्रभात खबर का यह अभियान चल रहा है... ‘पढ़ें और पढ़ायें अखबार’, दो रुपये में प्रभात खबर.
इसी प्रयास में प्रभात खबर का यह अभियान चल रहा है... ‘पढ़ें और पढ़ायें अखबार’, दो रुपये में प्रभात खबर.
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