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कांग्रेस ने अपनी बंदूकें स्पेन के लेखक जेवियर मोरो के खिलाफ तानी

 सोनिया गांधी के वकीलों के भारी दबाव में हैं
 ए  सूर्या कुमार 
साभार ।  दैनिक जागरण 
कांग्रेस  फिर से बंदिशों पर उतर आई है। प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में कुछ दृश्यों की काट-छांट का फरमान देने के बाद अब पार्टी के कर्णधारों ने अपनी बंदूकें स्पेन के लेखक जेवियर मोरो के खिलाफ तान दी हैं। सोनिया गांधी के जीवन पर केंद्रित उनके उपन्यास अल सारी रोजो (लाल साड़ी) को लेकर उनकी भृकुटियां तनी हैं। 

 लेखक के वकील द्वारा जारी किए गए नोटिस के बाद जैसाकि होता आया है, यूथ कांग्रेस हंगामे पर उतर आई और मुंबई में सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान इसके कार्यकर्ताओं ने किताब के कुछ पन्ने फाड़ डाले और भारत में इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। पुस्तक पहले ही स्पेनिश और इटेलियन सहित कुछ यूरोपीय भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है। चूंकि पुस्तक का जल्द ही अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित होने जा रहा है, इसलिए कांग्रेस ने विरोध के लिए बांहें चढ़ा ली हैं। 

लेखक के साक्षात्कारों से पता चलता है कि वह सोनिया गांधी के वकीलों के भारी दबाव में हैं कि इस पुस्तक को यूरोप की दुकानों से हटा लिया जाए और अंग्रेजी संस्करण में इसमें कुछ बदलाव किए जाएं। मोरो ने सोनिया के वकीलों पर प्रकाशक को आतंकित करने का आरोप लगाया है। 

उन्होंने कहा है कि वे किताब को पढ़े बिना ही इसके अंश उद्धृत कर रहे हैं। उनके अनुसार, इटली में सोनिया के जीवन वृत्तांत को लेकर कांग्रेस असहज महसूस कर रही है। मोरो ने सोनिया की जन्मस्थली लुसियाना और ओर्बेसेनो, जहां बाद में उनका परिवार स्थानांतरित हो गया था, के बहुत से लोगों से सोनिया और उनके परिवार के बारे में बातचीत की है। 

उन्होंने सोनिया के स्कूली दिनों, शिक्षा, कैरियर की योजनाओं और उनके दोस्तों के बारे में लिखा है। यह विचार प्रशंसनीय है क्योंकि सोनिया के जीवन के इस दौर के बारे में भारत में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है। क्या भारत के लोगों को यह सब जानने का हक नहीं है, जिन्होंने सोनिया को सत्ता की चाबी सौंप दी है। स्पष्ट तौर पर कांग्रेस पार्टी कुछ तथ्यात्मक गलतियों को लेकर खफा है और इन्हें दुरुस्त कराने के लिए कानूनी उपायों का सहारा लेने का उसे पूरा अधिकार है। 



किंतु क्या किताब को प्रतिबंधित करने का यह आधार हो सकता है? कांग्रेस सोनिया गांधी के पिता स्टीफेनो मैइनो के संदर्भो को लेकर भी असहज हो सकती है। वह इटली के तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी की सेना में काम कर चुके हैं और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रूस के खिलाफ युद्ध में भाग ले चुके हैं। 

किंतु विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को सच्चाई से मुंह नहीं फेरना चाहिए। स्टीफेनो के राजनीतिक आग्रहों के संदर्भो को हलके में नहीं लिया जा सकता क्योंकि वह मुसोलिनी और उनके तानाशाही शासन के कट्टर समर्थक थे। 

यह उन्होंने करीब तीस साल पहले एक भारतीय पत्रकार को दिए इंटरव्यू में स्वीकार किया था। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि इटली में फिर से तानाशाही सत्ता आएगी। इसलिए स्टीफेनो को मुसोलिनी की शान में कसीदे पढ़ते देखने के लिए हमें मोरो की किताब पढ़ने की जरूरत नहीं है। 

इस बात पर अब इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है और क्या यह पुस्तक प्रतिबंधित करने का उचित कारण है? विरोध का एक अन्य बिंदू यह है कि राजीव गांधी की हत्या के तुरंत बाद सोनिया गांधी ने भारत छोड़कर इटली में बसने का मन बना लिया था। मोरो का कहना है कि उनकी पुस्तक भारत और इटली में अनेक लोगों से बातचीत के आधार पर तैयार की गई है। 

यह संभव है कि मोरो का आकलन सही न हो क्योंकि इसकी पुष्टि के लिए कोई साक्ष्य नहीं मिलता। किंतु 1977 में इंदिरा गांधी की करारी हार के बाद भारत में यह अफवाह खूब फैली थी कि इंदिरा गांधी इटली जाने का मन बना चुकी थीं। 

हममें से जो लोग जो 1975-77 में इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल के भुक्तभोगी रहे हैं, वे इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि कैसे उन्होंने संविधान को बदलकर और लोकतंत्र को उलटकर 25 जून, 1975 को तानाशाही थोप दी थी। उस रात उन्होंने राष्ट्रपति से घोषणा जारी करवाकर राजनीतिक विरोधियों का दमन शुरू कर दिया था। 

सरकार ने बहादुर शाह जफर मार्ग, जहां अनेक अखबारों के दफ्तर थे, की बत्ती काट दी थी ताकि अगली सुबह अखबार यह खबर प्रकाशित न कर सकें कि इंदिरा गांधी ने तानाशाही शक्तियां हासिल कर लीं। अब मोरो की पुस्तक में सोनिया गांधी को आरके धवन और सिद्धार्ध शंकर राय की बातचीत को सुनते हुए दर्शाया गया है। पुस्तक में बताया गया है कि धवन ने राय को कहा था कि अखबारों की बत्ती गुल कर दी गई है। 

जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है कि उस रात सरकार ने अखबारों की बिजली काट दी थी और राय, धवन और अन्य बहुत से कुछ लोग इससे अवगत थे। यह फैसला इंदिरा गांधी के आधिकारिक निवास स्थान पर लिया गया था, जहां सोनिया और राजीव रहते थे। यह विश्वास करना कठिन है कि सोनिया गांधी उस रात की घटनाओं के बारे में कुछ नहीं जानती थीं। 

खासतौर पर इसलिए कि अपनी सास इंदिरा गांधी के साथ उनके मधुर संबंध थे और इंदिरा गांधी ही लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाने का फैसला ले रही थीं। हालांकि अगर मोरो यह कहने में गलती भी कर रहे थे कि सोनिया गांधी को अखबारों की बिजली काटने की जानकारी थी, तो भी क्या किताब को प्रतिबंधित करने का यह पुख्ता आधार है? 


मोरो की किताब पर कांग्रेस के हमले से पहले प्रकाश झा की फिल्म राजनीति को सेंसर करने का प्रयास किया गया। कांग्रेस ने फिल्म निर्माता को आसानी से धौंस में लेना सुनिश्चित कर रखा था क्योंकि इसने पार्टी सदस्यों को सेंसर बोर्ड और इसकी रिवाइजिंग कमेटी में घुसा रखा है। 

इससे पार्टी के सदस्यों को रिलीज से पहले ही फिल्म देखने का वैध अधिकार मिल जाता है और यह कांग्रेस पार्टी व गांधी-नेहरू परिवार के हितों को सुरक्षित रखना सुनिश्चित कर लेती है। स्पष्टत: इन सदस्यों ने यही किया जब फिल्म में कुछ सीन हटाने और कुछ बदलने की मांग की। शुरू में कांग्रेस को चिंता थी कि कैटरीना कैफ द्वारा निभाई गई भूमिका सोनिया गांधी से मेल खाती है। 

खासतौर पर इसलिए क्योंकि सोनिया भी कैटरीना की तरह अंग्रेजी शैली में बोलती हैं। इसके विपरीत हिंदू देवी-देवताओं को नग्न और कामुक क्रियाओं में रत दिखाने वाले एमएफ हुसैन की कृतियों को प्रतिबंधित करने के लिए कांग्रेस ने जरा भी सक्रियता नहीं दिखाई। 

नेहरू-गांधी परिवार की किसी भी आलोचना को लेकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं की आक्रोशित प्रतिक्रिया हमें इटली के तानाशाह मुसोलिनी के 28 अक्टूबर, 1925 में दिए गए भाषण की याद दिलाती है। मुसोलिनी ने घोषणा की थी- सबकुछ सत्ता में निहित है, सत्ता से बाहर कुछ नही, सत्ता के खिलाफ कुछ नहीं। 

नेहरू-गांधी परिवार के चंपुओं ने भारतीय संदर्भ में इसमें जरा-सा रद्दोबदल कर दिया है- सब कुछ परिवार के भीतर, परिवार के बाहर कुछ नहीं, परिवार के खिलाफ कुछ भी नहीं। क्या लोकतांत्रिक भारत यह स्वीकार कर सकता है? (लेखक विधि मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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